Vibhats Ras

Vibhats Ras घृणा नामक स्थाई भाव विभावादि से संयुक्त होकर वीभत्स रस में परिणत होता है.बीभत्स रस काव्य में मान्य नव रसों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है।

वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा होता है। इसमें घृणित वस्तुओं, घृणित चीजो या घृणित व्यक्ति को देखकर अथवा उनके संबंध में विचार करके अथवा उनके सम्बन्ध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि ही वीभत्स रस कि पुष्टि करती है अर्थात वीभत्स रस के लिए घृणा और जुगुप्सा का होना आवश्यक होता है। 

Vibhats Ras बीभत्स रस भी काव्य में मान्य नव रसों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है और इसकी स्थिति दु:खात्मक रसों में मानी जाती है। इस दृष्टि से करुण, भयानक तथा रौद्र, ये तीनो रस इसके सहयोगी या सहचर सिद्ध होते हैं। शान्त रस से भी इसकी निकटता मान्य है, क्योंकि बहुधा बीभत्सता का दर्शन वैराग्य की प्रेरणा देता है और अन्तत: शान्त रस के स्थायी भाव शम का पोषण करता है।Vibhats Ras

सिर पर बैठो काग आँखि दोउ-खात निकारत। 
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत। । 

आँखे निकाल उड़ जाते, क्षण भर उड़ कर आ जाते
शव जीभ खींचकर कौवे, चुभला-चभला कर खाते
भोजन में श्वान लगे मुरदे थे भू पर लेटे
खा माँस चाट लेते थे, चटनी सैम बहते बहते बेटे। 

बहु चील्ह नोंचि ले जात तुच, मोद मठ्यो सबको हियो
जनु ब्रह्म भोज जिजमान कोउ, आज भिखारिन कहुँ दियो।