Karun Ras Tuesday 10th of December 2024
Karun Ras करुण रस रस में किसी अपने का वियोग या अपने का विनाश एवं प्रेमी से सदैव दूर चले जाने से या विछुड़ जाने से जो दुःख या वेदना उत्पन्न होती है उसे करुण रस कहते हैं। or जहां पर कोई हानि के कारण जो भाव उत्पन्न होता है वहां पर करुण रस Karun Ras होता है,किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से जो शोक उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है
करुण रस का स्थायी भाव शोक होता है करुण रस में किसी अपने का विनाश अथवा अपने का वियोग, द्रव्यनाश एवं प्रेमी से सदैव दूर चले जाने या विछुड़ जाने से जो दुःख या वेदना की उत्पत्ति होती है उसे करुण रस कहा जाता है। यद्यपि वियोग श्रंगार रस में भी दुःख का अनुभव होता है लेकिन वहाँ पर दूर जाने वाले से पुनः मिलन कि आशा बंधी हुयी रहती है। इसका अर्थ यह है की जहाँ पर पुनः मिलने कि आशा समाप्त हो जाती है वहां पर करुण रस होता है। इसमें छाती पीटना,निःश्वास,रोना, भूमि पर गिरना आदि का भाव व्यक्त होता है। दूसरे शब्दों में -
किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से जो शोक उत्पन्न होता है उसे करुण रस कहते है
मणि खोये भुजंग-सी जननी,
फन-सा पटक रही थी शीश,
अन्धी आज बनाकर मुझको,
क्या न्याय किया तुमने जगदीश ?
अभी तो मुकुट बंधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ,
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।
हाय रुक गया यहीं संसार,
बिना सिंदूर अनल अंगार
वातहत लतिका वट
सुकुमार पड़ी है छिन्नाधार। ।
सीता गई तुम भी चले मै भी न जिऊंगा यहाँ
सुग्रीव बोले साथ में सब (जायेंगे) जाएँगे वानर वहाँ।
राघौ गीध गोद करि लीन्हों।
नयन सरोज सनेह सलिल
सुचि मनहुँ अरघ जल दीन्हों। ।
भरतमुनि के अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में प्रतिपादित आठ नाट्य रसों में श्रृंगार और हास्य के अनन्तर तथा रौद्र से पूर्व करुण रस की गणना की है। ‘रौद्रात्तु करुणो रस:’ कहकर 'करुण रस' की उत्पत्ति 'रौद्र रस' से मानी है और उसका वर्ण कपोत के सदृश तथा देवता यमराज बताये गये हैं। भरत ने ही करुण रस का विशेष विवरण देते हुए उसके स्थायी भाव का नाम ‘शोक’ दिया है। और उसकी उत्पत्ति शापजन्य क्लेश विनिपात, इष्टजन-विप्रयोग, विभव नाश, वध, बन्धन, विद्रव अर्थात् पलायन, अपघात, व्यसन अर्थात् आपत्ति आदि विभावों के संयोग से स्वीकार किया है। साथ ही करुण रस के अभिनय में अश्रुपातन, परिदेवन , विलाप, मुखशोषण, वैवर्ण्य, त्रस्तागात्रता, नि:श्वास, स्मृतिविलोप आदि अनुभावों के प्रयोग का निर्देश भी कहा गया है। फिर निर्वेद,औत्सुक्य, ग्लानि, चिन्ता, , आवेग, दैन्य,अपस्मार, मोह, श्रम, वेवर्ण्य, भय, विषाद, व्याधि, जड़ता, उन्माद, त्रास, आलस्य, मरण, स्तम्भ, वेपथु,अश्रु, स्वरभेद आदि की व्यभिचारी या संचारी भाव के रूप में परिगणित किया है।
रस के भेद-
रस 9 प्रकार के होते हैं परन्तु वात्सल्य एवं भक्ति को भी रस माना गया हैं।
१- श्रंगार रस Shringar Ras
२- हास्य रस Hasya Ras
३- वीर रस Veer Ras
४- करुण रस Karun Ras
५- शांत रस Shant Ras
६- अदभुत रस Adbhut Ras
७- भयानक रस Bhayanak Ras
८- रौद्र रस Raudra Ras
९- वीभत्स रस Vibhats Ras
१०- वात्सल्य रस Vatsalya Ras
११- भक्ति रस Bhakti Ras