Hasya Ras

Hasya Ras सबसे पहले हम यह जानते हैं कि हास्य रस क्या होता है हास्य रस की परिभाषा क्या होती है. Hasya Ras - हास्य रस का स्थाई भाव हास होता है हास्य एक ऐसी पूंजी है जो हंसने वालों को स्वस्थ बनाती है। जिसकी, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि से, उत्पत्ति होती है और जिसका नाम खिल जाना है, उसे ‘हास’ कहते हैं। हास्य रस का उदाहरण, हास्य रस के उदाहरण, परिभाषा

हास्य रस क्या है

जहाँ पर किसी विचित्र स्थितियों या परिस्थितियों के कारण हास्य की उत्पत्ति होती है उसे हास्य रस कहा जाता है । इसका स्थायी भाव हास होता हैं । इसके अन्तर्गत वाणी वेशभूषा, आदि की विकृति को देखकर मन में जो विनोद का भाव उत्पन्न होता है उससे हास की उत्पत्ति होती है, इसे ही हास्य रस कहा जाता है ।

भरतमुनि ने कहा है कि- दूसरों की चेष्टा से अनुकरण से ‘हास’ उत्पन्न होता है, तथा यह स्मित, हास एवं अतिहसित के द्वारा व्यंजित होता है "स्मितहासातिहसितैरभिनेय:।" भरत ने त्रिविध हास का जो उल्लेख किया है, उसे ‘हास’ स्थायी के भेद नहीं समझना चाहिए।

पण्डितराज का कथन है - 'जिसकी, वाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि से, उत्पत्ति होती है और जिसका नाम खिल जाना है, उसे ‘हास’ कहते हैं।"

‘ विंध्य के वासी उदासी,
 तपोव्रत धारी महा बिनु नारि दुखारे,
 गौतमतीय तरी तुलसी सो
कथा सुनि भे मुनिवृन्द सुखारे। 
है है शिला सब चंद्र मुखी परसे 
पद मंजुल कंज तिहारे,
कीन्हीं भली रघुनायक जू
कंरूणा करि कानन कौ पग धारे | 

अत्तुं वांछति वाहनं गणपते राखुं क्षुधार्त: फणी
तं च क्रौंचपते: शिखी च गिरिजा सिंहोऽपिनागानर्न।
गौरी जह्रुसुतामसूयसि कलानार्थ कपालाननो
निविं्वष्ण: स पयौ कुटुम्बकलहादीशोऽपिहालाहलम्।।

चीटे न चाटते मूसे न सूँघते, बांस में माछी न आवत नेरे,
आनि धरे जब से घर मे तबसे रहै हैजा परोसिन घेरे,
माटिहु में कछु स्वाद मिलै, इन्हैं खात सो ढूढ़त हर्र बहेरे,
चौंकि परो पितुलोक में बाप, सो आपके देखि सराध के पेरे।।

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हास्य रस का स्थायी भाव हास और विभाव आचार, व्यवहार, केशविन्यास, नाम तथा अर्थ आदि की विकृति है, जिसमें विकृतदेवालंकार ‘धाष्टर्य’ लौल्ह, कलह, असत्प्रलाप, व्यंग्यदर्शन, दोषोदाहरण आदि की गणना की गयी है। ओष्ठ-दंशन, नासा-कपोल स्पन्दन, आँखों के सिकुड़ने, स्वेद, पार्श्वग्रहण आदि अनुभावों के द्वारा इसके अभिनय का निर्देश किया गया है, तथा व्यभिचारी भाव आलस्य, अवहित्य (अपना भाव छिपाना), तन्द्रा, निन्द्रा, स्वप्न, प्रबोध, असूया (ईर्ष्या, निन्दा-मिश्रित) आदि माने गये हैं।

शारदातनय ने रजोगुण के अभाव और सत्त्व गुण के आविर्भाव से हास्य की सम्भावना बतायी है, और उसे प्रीति पर आधारित एक चित्त विकार के रूप में प्रस्तुत किया है। ".....स श्रृंगार इतीरित:। तस्मादेव रजोहीनात्समत्वाद्धास्यसम्भव:।"