Bhakti Ras जहां पर ईश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम का भाव हो वहां पर भक्ति रस होता है। इसका स्थाई भाव ईश्वर प्रेम होता है। भक्ति रस का स्थायी भाव देव रति होता है.भक्ति रस - परिभाषा, भेद और उदाहरण .
भक्ति रस का स्थायी भाव देव रति होता है इस रस में ईश्वर कि अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है। अर्थात इस रस में ईश्वर के प्रति प्रेम का वर्णन किया जाता है।
उलट नाम जपत जग जाना
वल्मीक भए ब्रह्म समाना
अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई,
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई।
एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास,
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।
भक्ति को रस मानना चाहिए या भाव, यह प्रश्न बीसवीं शताब्दी तक के काव्य-मर्मज्ञों के आगे एक जटिल समस्या के रूप में सामने आता रहा है। कुछ विशेषज्ञ भक्ति को बलपूर्वक रस घोषित करते हैं परन्तु कुछ परम्परानुमोदित रसों की तुलना में उसे श्रेष्ठ बताते हैं। कुछ शान्त रस और भक्ति रस में अभेद स्थापित करने की चेष्टा करते हैं। और कुछ उसे अन्य रसों से भिन्न, सर्वथा आलौकिक, एक ऐसा रस मानते हैं, जिसके अन्तर्गत शेष सभी प्रधान रसों का समावेश हो जाता है। इस तरह से उनकी दृष्टि में भक्ति ही वास्तविक रस है। शेष रस उनके अंग या रसाभासमात्र हैं। इस प्रकार भक्ति रस का एक स्वतंत्र इतिहास है, जो रस तत्त्व विवेचन की दृष्टि से महत्ता रखता है।
उलट नाम जपत जग जाना
वल्मीक भए ब्रह्म समाना
अँसुवन जल सिंची-सिंची प्रेम-बेलि बोई,
मीरा की लगन लागी, होनी हो सो होई।
एक भरोसो एक बल, एक आस विश्वास,
एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास।